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Writer's pictureKaran

मेरी अमृता


तुम अमृता बनी रही मैं इमरोज़ हिं ठीक था

तुम्हारा अक्स, तुम्हारी 'छाई,

ख़ामोशी और ख़ामोशी के ठहाके,

बेसुध मेरे कमरे के किसी कोने में पड़े रहे,

तुम अपने खाली खतों से लिपटी रही

मैं तुम्हारे अनलिखे शब्दों सा ठीक था

तुम अमृता बनी रही मैं इमरोज़ हिं ठीक था

तुम्हारा ख़्वाब, तुम्हारी चाह, बेमतलब की ख्वाहिशें,

साहिर तक जा जा कर लौटती रही...

तुम अपने अधूरे सच से झगड़ती रही,

मैं तुम्हारे झूट सा ठीक था.

तुम अमृता बनी रही, मैं इसमोरज हिं ठीक था.

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